सोमवार, 16 मई 2016

देवमणि पांडेय की ग़ज़ल : काग़ज़ों में है सलामत

DEVMANI PANDEY



देवमणि पांडेय की ग़ज़ल

काग़ज़ों में है सलामत अब भी नक़्शा गाँव का
पर नज़र आता नहीं  पीपल पुराना गाँव का

बूढ़ीं आँखें मुंतज़िर हैं पर वो आख़िर क्या करें
नौजवां तो भूल ही बैठे हैं रस्ता गाँव का

पहले कितने ही परिंदे आते थे परदेस से
अब नहीं भाता किसी को आशियाना गाँव का

छोड़ आए थे जो बचपन वो नज़र आया नहीं
हमने यारो छान मारा चप्पा-चप्पा गाँव का

हो गईं वीरान गलियाँ, खो गई सब रौनक़ें
तीरगी में खो गया सारा उजाला गाँव का

वक़्त ने क्या दिन दिखाए चंद पैसों के लिए
बन गया मज़दूर इक छोटा-सा बच्चा गाँव का

सुख में, दुख में, धूप में जो सर पे आता था नज़र
गुम हुआ जाने कहाँ वो लाल गमछा गाँव का

हर तरफ़ फैली हुई है बेकसी की तेज़ धूप
सबके सर से उठ गया है जैसे साया गाँव का

जो गए परदेस उसको छोड़कर दालान में
राह उनकी देखता है वो बिछौना गाँव का

शाम को चौपाल में क्या गूँजते थे क़हक़हे
सिर्फ़ यादों में बचा है अब वो क़िस्सा गाँव का

ख़ैरियत एक दूसरे की पूछता कोई नहीं
क्या पता अगले बरस क्या हाल होगा गाँव का

सोच में डूबे हुए हैं गाँव के बूढ़े दरख़्त
वाक़ई क्या लुट गया है कुल असासा गाँव का

देवमणि पांडेय : 98210-82126




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